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Tuesday, February 16, 2010

!दूर देश का वाशी !

मैं रहा शिथिल मैं रहा सम्मिल .
हर वेश के आवेश में , मैं रहा यूँ हीं धूमिल .
तत्पर उज्जवल रेखाओं में मेरी गिनती हुई हर चर्चाओं में ,
मैं दूर देश का वाशी , कभी कदमो में कभी कोशो में .


प्राण वायु की परम्परा में ,
हर प्रेमी मुझको पनघट पर पाया .
कभी युक्त रोष कभी नम्र होश .
हर वक्त रहा मन में मदहोश .
हर वक्त रहा मन में खामोश .
मैं रहा शिथिल मैं रहा सम्मिल .
हर वेश के आवेश में , मैं रहा यूँ हीं धूमिल .

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